हक़ फ़त्ह-याब मेरे ख़ुदा क्यूँ नहीं हुआ तू ने कहा था तेरा कहा क्यूँ नहीं हुआ जब हश्र इसी ज़मीं पे उठाए गए तो फिर बरपा यहीं पे रोज़-ए-जज़ा क्यूँ नहीं हुआ वो शम्अ बुझ गई थी तो कोहराम था तमाम दिल बुझ गए तो शोर-ए-अज़ा क्यूँ नहीं हुआ वामाँदगाँ पे तंग हुई क्यूँ तिरी ज़मीं दरवाज़ा आसमान का वा क्यूँ नहीं हुआ वो शोला-साज़ भी इसी बस्ती के लोग थे उन की गली में रक़्स-ए-हवा क्यूँ नहीं हुआ आख़िर इसी ख़राबे में ज़िंदा हैं और सब यूँ ख़ाक कोई मेरे सिवा क्यूँ नहीं हुआ क्या जज़्ब-ए-इश्क़ मुझ से ज़ियादा था ग़ैर में उस का हबीब उस से जुदा क्यूँ नहीं हुआ जब वो भी थे गुलू-ए-बुरीदा से नाला-ज़न फिर कुश्तगाँ का हर्फ़ रसा क्यूँ नहीं हुआ करता रहा मैं तेरे लिए दोस्तों से जंग तू मेरे दुश्मनों से ख़फ़ा क्यूँ नहीं हुआ जो कुछ हुआ वो कैसे हुआ जानता हूँ मैं जो कुछ नहीं हुआ वो बता क्यूँ नहीं हुआ