हक़ की तलाश में ही भटकती रही सदा खोई रही है इश्क़ में मंज़िल मिरी सदा सीखा सबक़ जो मैं ने तो अज़बर नहीं किया पाती रही सज़ा मैं इसी बात की सदा तल्ख़ी गए दिनों की मिरे साथ ही रही वो उल्टी पड़ गई जो दुआ मैं ने की सदा कुछ और धँस गई उसे खींचा अगर कभी कश्ती पहन के रेत ही सोई रही सदा मैं अपनी खोज में रही लेकिन कुछ इस तरह तेरा ही ज़िक्र ग़ज़लों में करती रही सदा 'ज़हरा' मुआ'फ़ कर भी दे इक दिन अगर कभी तो भी सज़ा मिलेगी उसे अब वही सदा