हक़ से हुआ था कभी सीना-ए-आलम गुदाज़ मुझ को सुना दीजिए फिर वो नवा-हा-ए-राज़ ज़ौक़-ए-तलब है तो फिर सूद-ओ-ज़ियाँ से गुज़र राह-ए-वफ़ा में न कर फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़ आ ही गई थी आज नींद संग-ए-दर-ए-यार पर बे-ख़ुदी-ए-आरज़ू उम्र हो तेरी दराज़ फिर दिल-ए-बेताब को चाहिए सोज़-ओ-गुदाज़ मुतरिब-ए-आतिश-नफ़्स छेड़ छेड़ और अपना राज़ कह चुके सब हाल-ए-दिल बारगह-ए-दोस्त में 'अख़्तर'-ए-ख़ामोश छेड़ तू भी हदीस-ए-नियाज़