बे-ख़बर कुछ न जीते जी समझे जाँ से गुज़री तो ज़िंदगी समझे अब बहुत देर हो चुकी छोड़ो मरते मरते भी क्या कोई समझे इक ज़रा आईना दिखाया था आप जिस को खरी खरी समझे धुन के पक्के हैं कर ही जाएँगे जो भी इस दिल ने ठान ली समझें हम थे ख़ौफ़-ए-फ़साद-ए-ख़ल्क़ से चुप लोग एहसास-ए-बरतरी समझे ओ मेरा हाल पूछने वाले बात अब वो नहीं रही समझे जो समझने का दम भरे 'सीमा' क्या ही अच्छा हो वाक़ई समझे