हक़ वफ़ा के जो हम जताने लगे आप कुछ कह के मुस्कुराने लगे था यहाँ दिल में तान-ए-वस्ल-ए-अदू उज़्र उन की ज़बाँ पे आने लगे हम को जीना पड़ेगा फ़ुर्क़त में वो अगर हिम्मत आज़माने लगे डर है मेरी ज़बाँ न खुल जाए अब वो बातें बहुत बनाने लगे जान बचती नज़र नहीं आती ग़ैर उल्फ़त बहुत जताने लगे तुम को करना पड़ेगा उज़्र-ए-जफ़ा हम अगर दर्द-ए-दिल सुनाने लगे सख़्त मुश्किल है शेवा-ए-तस्लीम हम भी आख़िर को जी चुराने लगे जी में है लूँ रज़ा-ए-पीर-ए-मुग़ाँ क़ाफ़िले फिर हरम को जाने लगे सिर्र-ए-बातिन को फ़ाश कर या रब अहल-ए-ज़ाहिर बहुत सताने लगे वक़्त-ए-रुख़्सत था सख़्त 'हाली' पर हम भी बैठे थे जब वो जाने लगे