हक़ाएक़ को भुलाना चाहते हैं कोई रंगीं फ़साना चाहते हैं बदन पर ओढ़ कर गर्द-ए-मसाफ़त ग़म-ए-मंज़िल छुपाना चाहते हैं गई शब की रुपहली साअतों को नई धज से सजाना चाहते हैं परिंदों को न पत्थर से उड़ाओ मुसाफ़िर हैं ठिकाना चाहते हैं कुशादा साएबाँ सब के लिए हो रिआयत सब उठाना चाहते हैं नसीम-ए-सुब्ह हो सरसर हो कुछ हो ये पौदे लहलहाना चाहते हैं वो ख़ुद भी तो कभी आए थे 'मोहसिन' जो महफ़िल से उठाना चाहते हैं