हक़ीक़त है इसे मानें न मानें घटती बढ़ती हैं वो झूटी हों कि सच्ची दास्तानें घटती बढ़ती हैं किसी पहलू से कोई तीर आ कर चाट जाएगा हज़ारों ज़ाविए हैं और कमानें घटती बढ़ती हैं फ़लक-गीरी की ख़्वाहिश बाल-ओ-पर को राख कर देगी हवस-रानो परिंदों की उड़ानें घटती बढ़ती हैं शिकम-सेरी ने दस्तर-ख़्वान बिछवाए हैं लोगों से मज़ाक़-ए-ज़ाइक़ा समझो ज़बानें घटती बढ़ती हैं बुलंदी और पस्ती का कोई मेआर तय कर लो ज़मीं तंग हो रही है और चटानें घटती बढ़ती हैं मैं इन चाँदी के बाज़ारों पे अपने दाँत क्या गाड़ूँ चमकती फीकी पड़ती सब दूकानें घटती बढ़ती हैं 'शरर' मैं ऐसी मिट्टी पर असास-ए-फ़न नहीं रखता रसानों का भरोसा क्या रसानें घटती बढ़ती हैं