हक़ीर ख़ाक के ज़र्रे थे आसमान हुए वो लोग जो दर-ए-जानाँ के पासबान हुए शुदा-शुदा वही गुलशन के हुक्मरान हुए जो ख़ार पी के गुलों का लहू जवान हुए हम ऐसे अहल-ए-जुनूँ पर हँसे न क्यूँ दुनिया कि सर कटा के समझते हैं कामरान हुए ये कम नहीं कि बुझाई है प्यास काँटों की बला से राह-ए-वफ़ा में लहूलुहान हुए गुलों ने आबला-पाई की कोई दाद न दी चमन में ख़ार ही छालों के मेज़बान हुए किया जो भूल के दिल ने ख़याल-ए-तर्क-ए-वफ़ा हम अपने आप से क्या क्या न बद-गुमान हुए