हालात पर निगाह रुतों पर नज़र न थी जब तक रहे चमन में चमन की ख़बर न थी ख़ुद अपने घर को आग दिखाई थी आप ने इस में तो कोई साज़िश-ए-बर्क़-ओ-शरर न थी रूदाद-ए-तीरा-बख़्ती-ए-अहबाब क्या कहें उन के लिए सहर भी तुलू-ए-सहर न थी फ़स्ल-ए-बहार में तर-ओ-ताज़ा नहीं हवा शायद शजर को ख़्वाहिश-ए-बर्ग-ओ-समर न थी टूटी हुई उमीद शिकस्ता थे हौसले दिल की तबाहियों पे मगर आँख तर न थी दश्त-ए-तलब में इतने अंधेरे थे कारगर रख़्शंदा इक किरन भी सर-ए-रहगुज़र न थी फिर क्यूँ सुना दिया था अदालत ने फ़ैसला 'शाहिद' मिरी गवाही अगर मो'तबर न थी