हालत तो देख ली मिरी चश्म-ए-पुर-आब की साक़ी नहीं हवस मुझे जाम-ए-शराब की दिल को शरार-ए-शोला-ए-ग़म ने जला दिया पहलू से आ रही है जो ख़ुश्बू कबाब की किस की शमीम ने उसे ऐसा बसा दिया आती है अपनी ख़ाक से ख़ुश्बू गुलाब की अफ़साना-ए-गुज़िश्ता ये कहता है मुझ से दिल क्या ज़िक्र उन का भूलिए बातें हैं ख़्वाब की इस बारगाह-ए-अहमद-ए-मुर्सल के सामने वक़अत नहीं है कुछ भी फ़लक से हबाब की अज़-फ़र्श ता-ब-अर्श मुनव्वर उसी से है ऐसी चमक है रौज़ा-ए-आली-जनाब की क्यूँकर न हूँ मैं नग़्मा-सरा उन की ना'त में बुलबुल हूँ बोसतान-ए-रिसालत-मआ'ब की इस दहर-ए-बे-बक़ा से लगाऊँ मैं दिल को क्या हस्ती है एक वुसअत-ए-मौज-ए-सराब की इज़्ज़त न तेरे अर्श पे क्यूँ कर मलक करें तू है 'जमीला' ख़ाक-ए-क़दम बू-तुराब की