नक़्श दिल से न मिटा ज़र्रा बराबर उस का सब्त है आज भी दीवार पे पैकर उस का मैं ने साहिल से उसे डूबते देखा था फ़क़त मुझे ग़र्क़ाब करेगा यही मंज़र उस का अक्स भी दीदा-ए-क़ातिल में लहू बन के रहा क़त्ल हो कर भी जमा रंग बराबर उस का कर्ब-ए-तन्हाई ज़रा रूह से निकले तो सही मुंतज़िर है कोई इस दश्त के बाहर उस का जा चुका वो तो समुंदर की तहों में 'मिदहत' बैठ कर रेत पे अब नाम लिखा कर उस का