हालत-ए-दिल वही रही मक़्सद-ए-दिल को पा के भी हम तो सुकूँ न पा सके उन के क़रीब जा के भी इज़्न-ए-नज़ारा तो दिया जुरअत-ए-दीद छीन ली वो कभी सामने न आए रुख़ से हिजाब उठा के भी दिल है न ज़ौक़-ए-आरज़ू कोई तलब न जुस्तुजू अब वो करेंगे क्या मुझे साहिब-ए-दिल बना के भी पास-ए-रज़ा-ए-दोस्त को अहल-ए-वफ़ा से पूछिए कुछ न ज़बाँ से कह सके उन का इशारा पा के भी खुल गया राज़-ए-हाल-ए-दिल जब वो हरीम-ए-नाज़ में हम से नज़र चुराईए सब से नज़र मिला के भी यूँ भी इक इम्तिहाँ सही जज़्ब-ए-दरून-ए-इश्क़ का कुछ दिनों देख लीजिए दिल से हमें भुला के भी कम हुई क्या फ़सुर्दगी 'कैफ़'-ए-अलम-नसीब की आप ने देख तो लिया बारहा मुस्कुरा के भी