हाल-ए-दिल कहने को कहते हो तो कब तुम मुझ को हाए जिस वक़्त नहीं ताब-ए-तकल्लुम मुझ को ख़ाक हो कर भी वही हसरत-ए-पा-बोस रही हो गई मौज-ए-सबा मौज-ए-तलातुम मुझ को ज़ोफ़ से हाल ये पतला है रह-ए-उल्फ़त में सैल-ए-गिर्या पे भी हासिल है तक़द्दुम मुझ को कहते हैं ज़िक्र-ए-शब-ए-वस्ल पे क्या जानिए क्यूँ कभी शर्म और कभी आता है तबस्सुम मुझ को मो'जिज़ा हज़रत-ए-ईसा का था बे-शुबह दुरुस्त कि मैं दुनिया से गया उठ जो कहा क़ुम मुझ को सैल-ए-गिर्या की बदौलत ये हुआ घर का हाल ख़ाक तक भी न मिली बहर-ए-तयम्मुम मुझ को उन को गिन गिन के शब-ए-हिज्र बसर होती है तारे आँखों के न क्यूँ होवें ये अंजुम मुझ को है गज़ी गाढ़ा ही 'कैफ़ी' का शिआ'र और विसार नहीं दरकार है ये अतलस-ओ-क़ाक़ुम मुझ को