हाल-ए-दिल-ए-बीमार समझ में चारागरों की आए कम बेचैनी हो जाए ज़ियादा दर्द अगर हो जाए कम अश्क निगल जाऊँ तो यक़ीनन शिद्दत-ए-ग़म हो जाए कम दिल का झुलस जाना लाज़िम है आह जो लब पर आए कम मुझ को है तस्लीम क़फ़स में फूलों के हैं साए कम हाए मगर वो जिन को चमन की आब-ओ-हवा रास आए कम राह-ए-तलब में हर मंज़िल पर हो तज्दीद-ए-अज़्म-ए-सफ़र रहरव को आराम न आए और जो आए आए कम क़ामत-ए-फ़न की बात अलग मेयार-ए-हुनर की बात अलग शहर-ए-सुख़न गुंजान है लेकिन हैं मेरे हम-साए कम अपने ऐब से वाक़िफ़ होना सब से बड़ा है कार-ए-हुनर आदमी ख़ुद आईना देखे औरों को दिखलाए कम पूछने वालो हाल न पूछो इश्क़ में अब ये आलम है ख़ुद पर हँसना आए ज़ियादा दिल पर रोना आए कम आरिज़-ए-रंगीं कहने में तौसीफ़ तो है तश्बीह नहीं फूल पे आए उस की शबाहत फूल की उस पर आए कम शहर-ए-नफ़स से वादी-ए-जाँ तक सैकड़ों नाज़ुक रिश्ते हैं साँस न रुकने पाए 'अख़्गर' दर्द न होने पाए कम