हम आगही को रोते हैं और आगही हमें वारफ़्तगी-ए-शौक़ कहाँ ले चली हमें लेती गई थी हम से सबा ज़ौक़-ए-दिलबरी देती गई थी लज़्ज़त-ए-बे-रह-रवी हमें उन के ग़ुरूर-ओ-ग़म्ज़ा-ओ-नाज़-ओ-अदा की ख़ैर रास आ चली थी रस्म-ओ-रह-ए-आशिक़ी हमें हम ज़र्रा ज़र्रा ढूँड चुके मौजा-ए-सराब और क़तरा क़तरा ढूँड चुकी तिश्नगी हमें आई थी चंद गाम उसी बेवफ़ा के साथ फिर उम्र भर को भूल गई ज़िंदगी हमें