हम आप क़यामत से गुज़र क्यूँ नहीं जाते जीने की शिकायत है तो मर क्यूँ नहीं जाते कतराते हैं बल खाते हैं घबराते हैं क्यूँ लोग सर्दी है तो पानी में उतर क्यूँ नहीं जाते आँखों में नमक है तो नज़र क्यूँ नहीं आता पलकों पे गुहर हैं तो बिखर क्यूँ नहीं जाते अख़बार में रोज़ाना वही शोर है यानी अपने से ये हालात सँवर क्यूँ नहीं जाते ये बात अभी मुझ को भी मालूम नहीं है पत्थर इधर आते हैं उधर क्यूँ नहीं जाते तेरी ही तरह अब ये तिरे हिज्र के दिन भी जाते नज़र आते हैं मगर क्यूँ नहीं जाते अब याद कभी आए तो आईने से पूछो 'महबूब-ख़िज़ाँ' शाम को घर क्यूँ नहीं जाते