हम अब क्या बताएँ कहाँ तक गए गुमाँ के मुसाफ़िर गुमाँ तक गए हिसार-ए-जहाँ तक है दश्त-ए-अना दिखा बस ये मंज़र जहाँ तक गए न जज़्बात से ये सफ़र तय हुआ न दिल से कभी ये ज़बाँ तक गए कि हासिल यही मौसमों का रहा बहारों के पत्ते ख़िज़ाँ तक गए मसाफ़त किसी की यहीं तक रही मकाँ से चले तो दुकाँ तक गए बताओ क़ज़ा पर करें और क्या अज़ा से बढ़ें तो फ़ुग़ाँ तक गए जिन्हें आगही में मिला आसरा न फिर वो किसी भी अमाँ तक गए यूँही बार-ए-हस्ती उठाए फिरें हुए ख़ाक तो आसमाँ तक गए