हम अपने ज़ौक़-ए-सफ़र को सफ़र सितारा करें न कोई ज़ाइचा खींचें न इस्तिख़ारा करें उसी से लफ़्ज़ बने माँ भी एक है जिन में तो कैसे हर्फ़ की बे-हुरमती गवारा करें उसी शरर को जो इक अहद-ए-यास ने बख़्शा कभी दिया कभी जुगनू कभी सितारा करें शुऊ'र-ए-शे'र ने वो आँख खोल दी दिल में कि अब तो हम पस-ए-इम्कान भी नज़ारा करें फ़िराक़-रुत में भी कुछ लज़्ज़तें विसाल की हैं ख़याल ही में तिरे ख़ाल-ओ-ख़द उभारा करें इलाही खोल दे हम पर दर-ए-मदीना-ए-इल्म अली अली इसी उम्मीद पर पुकारा करें असा नहीं न सही हम फ़क़ीर लोग मगर हों मौज में तो तलातुम को ही किनारा करें ख़ुदा का शुक्र है सब ज़र-पसंद जाह-तलब हमारी सोहबत-ए-बे-फ़ैज़ से किनारा करें मिले जो वक़्त तो 'अंजुम' ब-सूरत-ए-दीवान मुरत्तब अपनी रियाज़त का गोश्वारा करें