जब तक फ़सील-ए-जिस्म का दर खुल न जाएगा इस दिल की यूरिशों का तसलसुल न जाएगा ख़ेमों से ता-फ़ुरात जो दरिया-ए-ख़ूँ है ये उस पर से मस्लहत का कोई पुल न जाएगा उस को गुमाँ नहीं था कि अहद-ए-ख़िज़ाँ में भी ये ज़ौक़-ए-नग़्मा-रेज़ी-ए-बुलबुल न जाएगा ये अब्र-ए-आगही जो बरसता रहा यूँही मिट्टी का ये वजूद मिरा घुल न जाएगा गिरता रहेगा यूँही बलाओं का आबशार जब तक ग़ुबार-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र धुल न जाएगा वो शख़्स तो ख़ुदाई के दावे पे तुल गया इस हद पे हम समझते थे बिल्कुल न जाएगा बस ऐ निगार-ए-ज़ीस्त यक़ीं आ गया हमें ये तेरी बे-रुख़ी ये तअम्मुल न जाएगा 'अंजुम' निगार-ए-ज़ीस्त को फिर चाहिए वही इक सर जो ख़्वाहिशों के एवज़ तुल न जाएगा