हम अपनी रूह के ऊपर अज़ाब देखते हैं कि रोज़ तुझ से बिछड़ने का ख़्वाब देखते हैं कभी कभी तो हमें भी यक़ीं नहीं आता कि हम बहार में जलते गुलाब देखते हैं तुम्हारी चश्म-ए-तमन्ना को देखने वाले कोई ख़ज़ाना-ए-ग़म ज़ेर-ए-आब देखते हैं बस एक आस के रिश्ते पे उम्र कटती है कि ख़ुश्क पेड़ मुसलसल सराब देखते हैं जहाँ जुनूँ की तमाज़त पे हर्फ़ आता हो हम उस मक़ाम पे इक इंक़लाब देखते हैं हमारे क़द का तुम अंदाज़ा क्या लगाओगे हम आँख मूँद के सहरा में आब देखते हैं ये शहर-ए-इश्क़ तो 'आफ़ाक़' हो नहीं सकता हम इस इलाक़े का मौसम ख़राब देखते हैं