नई ज़मीन नए आसमाँ सँवरते रहें यही है शर्त तो फिर हर्फ़ हर्फ़ मरते रहें यही सज़ा है कि लम्हों की बाज़-गश्त के बाद सदी सदी तिरे कूचे में बैन करते रहें वो इंक़िलाब लकीरों से जो उभर न सका कहाँ तलक उसी ख़ाके में रंग भरते रहें कुछ और चाहिए दीवानगी को हद्द-ए-जुनूँ कुछ और अरसा-ए-महशर कि हम गुज़रते रहें कोई सदा कोई आवाज़ा-ए-जरस ही सही कोई बहाना कि हम जाँ निसार करते रहें