हम भी ऐ दोस्त ग़म-ए-इश्क़ के मारे थे कभी हम ने भी चंद हसीं लम्हे गुज़ारे थे कभी कौन मानेगा किसे आज यक़ीं आएगा हम भी दुनिया को दिल-ओ-जान से प्यारे थे कभी अब ये आलम है ख़लाओं में भटकती है नज़र ज़र्रे ज़र्रे में निहाँ चाँद सितारे थे कभी अब वही हाथ हैं और चाक-गरेबाँ ज़ालिम जिन से दिन रात तिरे बाल सँवारे थे कभी ज़िंदगी जिन से दरख़्शाँ थी मोहब्बत ज़िंदा उसी ख़ाकिस्तर-ए-दिल में शरारे थे कभी भूलना चाहूँ अगर मैं तो भुला भी न सकूँ उफ़ वो लम्हे जो तिरे साथ गुज़ारे थे कभी इतनी ज़ालिम तो न थी गर्दिश-ए-दौराँ 'राही' इतने बे-बस तो न हम इश्क़ के मारे थे कभी