हम भी थे गोशा-गीर कि गुमनाम थे बहुत इस तर्ज़-ए-ज़ीस्त में मगर आराम थे बहुत दुनिया है कार-ख़ाना-ए-वहम-ओ-गुमाँ तमाम सच्चे वही फ़साने थे जो आम थे बहुत ख़ुद अपने इज़्तिरार-ए-तबीअ'त से तंग थे हम जो शिकार-ए-गर्दिश-ए-अय्याम थे बहुत लिपटी रही तो सर-बसर असरार थी वो ज़ुल्फ़ खुलती कभी तो उस के भी पैग़ाम थे बहुत इक उम्र तजरबात में गुज़री तो ये खुला याँ आज़मूदा-कार ही नाकाम थे बहुत