हम दोनों में कोई न अपने क़ौल-ओ-क़सम का सच्चा था आपस में बस एक पुराना टूटा-फूटा रिश्ता था दिल की दीवारों पे हम ने आज भी सीलन देखी है जाने कब आँखें रोई थीं जाने कब बादल बरसा था ख़्वाब-नगर तक आते आते टूट गए हम जैसे लोग ऊँची नीची राह बहुत थी सारा रस्ता कच्चा था पूरा बादल पूरी बारिश मौसम पूरे ज़ोर पे था सब के सरों पे छत रक्खी थी मैं ही अकेला भीगा था अपनी ज़ात के सारे ख़ुफ़िया रस्ते उस पर खोल दिए जाने किस आलम में उस ने हाल हमारा पूछा था उस का मिलना धूल-भरे मौसम में बूंदों जैसा था सब्ज़ा बन कर फूट रहा है जो भी अंदर सूखा था उस की याद के सारे मीठे फल तोतों ने कतर लिए यूँ तो हम ने चारों कोने शोर मचाए रक्खा था