हम बिछड़ के तुम से बादल की तरह रोते रहे थक गए तो ख़्वाब की दहलीज़ पर सोते रहे लोग लहजे का सुहाना-पन सुख़न की नग़्मगी शहर की आबादियों के शोर में खोते रहे क्यूँ मता-ए-दिल के लुट जाने का कोई ग़म करे शहर-ए-दिल्ली में तो ऐसे वाक़िए होते रहे सुर्ख़ियाँ अख़बार की गलियों में ग़ुल करती रहीं लोग अपने बंद कमरों में पड़े सोते रहे महफ़िलों में हम रफ़ीक़-ए-राज़-दाँ समझे गए घर के आँगन में मगर तन्हाइयाँ बोते रहे