हम नक़्श-ए-पा थे राहगुज़र ही में रह गए निकले सफ़र पे और सफ़र ही में रह गए शायद उन्हें था हादिसा-ए-ज़ब्त-ए-ग़म का डर आँसू लरज़ के दीदा-ए-तर ही में रह गए मंज़िल पे वो भी पहुँचेंगे किस को यक़ीन हो पीछे जो इब्तिदा-ए-सफ़र ही में रह गए सारे जवाब दे न सके ज़िंदगी के हम कितने सवाल दीदा-ए-तर ही में रह गए पर्वाज़ उन के साथ करे आशियाँ की ख़ाक वो बाल-ओ-पर जो बर्क़-ओ-शरर ही में रह गए दहलीज़ के चराग़ का 'सौलत' ख़याल था मंज़िल का शौक़ ले के भी घर ही में रह गए