हम ने ऐ दोस्त रिफ़ाक़त से भला क्या पाया जू-ए-बे-आब है तू मैं शजर-ए-बे-साया दर्द जो अक़्ल के इसराफ़ से बच रहता है इश्क़ के क़हत-ज़दों का है वही सरमाया दीदा-ओ-दिल से गुज़रता है कोई शख़्स अक्सर जैसे आहू-ए-रमीदा का गुरेज़ाँ साया कल फ़क़त गेसू-ए-बरहम थे निशान-ए-तशवीश आज देखा तो उन्हें और परेशाँ पाया हुस्न से जब भी छिड़ा मार्का-ए-दीदा-ओ-दिल ख़ुद मिरा इश्क़ मिरे मद्द-ए-मुक़ाबिल आया मैं हूँ ख़ुद अपनी ही ख़ाकिस्तर-ए-जाँ में मदफ़ून दफ़्न हो जैसे ख़राबे में कोई सरमाया