कुछ भी समझ न पाओगे मेरे बयान से देखा भी है ज़मीं को कभी आसमान से हम रौशनी की भीक नहीं माँगते कभी जुगनू निकालते हैं अँधेरों की कान से महसूस कर रही है ज़मीं अपने सर पे बोझ मिट्टी खिसक के गिरने लगी है चटान से हँसती हुई बहार का चेहरा उतर गया बारूद बन के लफ़्ज़ जो निकले ज़बान से हम क्यूँ बना रहे हैं उन्हें अपना रहनुमा जो खेलते हैं रोज़ हमारी ही जान से क़ीमत लगा रहे हैं हमारे लहू की वो और चाहते हैं उफ़ न करें हम ज़बान से करना है अपने ग़म का इज़ाला भी ख़ुद हमें बारिश न होगी अम्न की अब आसमान से