हम ने ज़ाहिर किया सुख़न में बहुत शोर बाक़ी है क्यूँ बदन में बहुत कौन आया है इस ख़राबे में रौशनी है कहीं बदन में बहुत कोई आवाज़ क्यूँ नहीं आती हू का आलम है क्यूँ बदन में बहुत फड़फड़ाने की आ रही है सदा कौन बेचैन है बदन में बहुत है ज़मीं से ज़मीन तक पर्वाज़ ख़ाक उठती है पैरहन में बहुत रंग-ओ-बू ही नहीं फ़क़त आबाद ख़ून अपना भी है चमन में बहुत मस्लहत है कि बुज़दिली 'हमदम' ख़ामुशी आ गई सुख़न में बहुत