हम ने जाना था सुख़न होंगे ज़बाँ पर कितने पर क़लम हाथ जो आई लिखे दफ़्तर कितने मैं ने इस उस सन्नाअ से सर खींचा है कि हर इक कूचे में जिस के थे हुनर-वर कितने किश्वर-ए-इश्क़ को आबाद न देखा हम ने हर गली-कूचे में ऊजड़ पड़े थे घर कितने आह निकली है ये किस की हवस सैर-ए-बहार आते हैं बाग़ में आवारा हुए पर कितने देखियो पंजा-ए-मिज़्गाँ की टक आतिश-दस्ती हर सहर ख़ाक में मिलते हैं दर-ए-तर कितने कब तलक ये दिल सद-पारा नज़र में रखिए उस पर आँखें ही सिए रहते हैं दिलबर कितने उम्र गुज़री कि नहीं दो आदम से कोई जिस तरफ़ देखिए अर्से में हैं अब ख़र कितने तू है बेचारा गदा 'मीर' तिरा किया मज़कूर मिल गए ख़ाक में याँ साहब अफ़सर कितने