कब सबा सू-ए-असीरान-ए-क़फ़स आती है कब ये उन तक ख़बर-ए-आमद-ए-गुल लाती है दुख़्तर-ए-रज़ की हूँ सोहबत का मुबाशिर क्यूँकर अभी कम-सिन है बहुत मर्द से शरमाती है क्यूँकि फ़र्बा न नज़र आवे तिरी ज़ुल्फ़ की लट जोंक सी ये तो मिरा ख़ून ही पी जाती है जिस्म ने रूह-ए-रवाँ से ये कहा तुर्बत में अब मुझे छोड़ के तन्हा तू कहाँ जाती है क्या मगर उस ने सुना शोहरा-ए-हुस्न उस गुल का आँखें कोह्हाल से नर्गिस भी जो बनवाती है लाख हम शेर कहें लाख इबारत लिक्खें बात वो है जो तिरे दिल में जगह पाती है होवे किस तरह दिलेराना वो आशिक़ से दो-चार अपने भी अक्स से जो आँख कि शरमाती है 'मुसहफ़ी' को नहीं कुछ वस्फ़-ए-इज़ाफ़ी से तो काम शेर कहना ज़ि-बस उस का सिफ़त-ए-ज़ाती है