हम रिवायत के साँचे में ढलते भी हैं और तर्ज़-ए-कुहन को बदलते भी हैं जादा-ए-आम पर भी है अपनी नज़र जादा-ए-आम से बच के चलते भी हैं राहिबाना क़नाअत के ख़ूगर सही वालिहाना कभी हम मचलते भी हैं दामन-ए-नश्शा देते नहीं हात से रिंद गिरते भी हैं और सँभलते भी हैं यूँ तो इख़फ़ा-ए-ग़म का नमूना हैं हम दूसरों के लिए हात मलते भी हैं कुछ ये है मस्लहत-केश हम भी नहीं कुछ ये अहल-ए-रिया हम से जलते भी हैं नाज़ क्या इस क़दर आरज़ी हुस्न पर शहरयारों के सिक्के बदलते भी हैं