बरसों बअ'द जो देखा उस को सर पर उलझा जोड़ा था जिस्म भी थोड़ा फैल गया था रंग भी कुछ कुछ मेला था तुम भी जिस को देख रहे थे वो जो एक अकेला था दुबला पतला उलझा हैराँ अरमानों का मेला था झील का शीशा नीले बादल के होंटों से भीगा था दूर तलक शाख़ों के नीचे सब्ज़ अंधेरा फैला था बिन दस्तक भी खोले रक्खे हम ने अपने बंद किवाड़ लेकिन हाए भाग हमारा कोई न मिलने आया था तुम ये समझे देख रही थी तुम को लेकिन तुम क्या जानो रूप तुम्हारा ही था वैसे रूप में किस का साया था