हम रूह-ए-काएनात हैं नक़्श-ए-असास हैं हम वक़्त का ख़मीर ज़माने की बास हैं तन्हा हैं हम तमाम न क़ुर्बत न फ़ासले हम आप के क़रीब न हम अपने पास हैं कब से टँगे हुए हैं ख़लाओं के आस पास कब से ये आसमाँ के सितारे उदास हैं ख़ुद हट गए हैं दूर वो पानी के ज़ोर से दरिया के वो किनारे जो दरिया-शनास हैं ख़ुद-रौ हैं हम हमें न ख़िज़ाँ से डराइए सहरा के मस्त फूल हैं जंगल की घास हैं कितनी बहारें आ के चमन से गुज़र गईं हम हैं कि एक गुल के लिए महव-ए-यास हैं जिन के बदन पे अतलस-ओ-कमख़ाब है 'समद' सच पूछिए तो लोग वही बे-लिबास हैं