हम सादा ही ऐसे थे की यूँ ही पज़ीराई जिस बार ख़िज़ाँ आई समझे कि बहार आई आशोब-ए-नज़र से की हम ने चमन-आराई जो शय भी नज़र आई गुल-रंग नज़र आई उम्मीद-ए-तलत्तुफ़ में रंजीदा रहे दोनों तू और तिरी महफ़िल मैं और मिरी तंहाई यक जान न हो सकिए अंजान न बन सकिए यूँ टूट गई दिल में शमशीर-ए-शनासाई उस तन की तरफ़ देखो जो क़त्ल-गह-ए-दिल है क्या रक्खा है मक़्तल में ऐ चश्म-ए-तमाशाई