हम से शायद ही कभी उस की शनासाई हो दिल ये चाहे है कि शोहरत हो न रुस्वाई हो वो थकन है कि बदन रेत की दीवार सा है दुश्मन-ए-जाँ है वो पछुआ हो कि पुर्वाई हो हम वहाँ क्या निगह-ए-शौक़ को शर्मिंदा करें शहर का शहर जहाँ उस का तमाशाई हो दर्द कैसा जो डुबोए न बहा ले जाए क्या नदी जिस में रवानी हो न गहराई हो कुछ तो हो जो तुझे मुम्ताज़ करे औरों से जान लेने का हुनर हो कि मसीहाई हो तुम समझते हो जिसे संग-ए-मलामत 'इरफ़ान' क्या ख़बर वो भी कोई रस्म-ए-पज़ीराई हो