सुकूत-ए-शाम से घबरा न जाए आख़िर तू मिरे दयार से गुज़री जो ऐ किरन फिर तू लिबास-ए-जाँ में नहीं शो'लगी का रंग मगर झुलस रहा है मिरे साथ क्यूँ ब-ज़ाहिर तू वफ़ा-ए-वा'दा-ओ-पैमाँ का ए'तिबार भी क्या कि मैं तो साहब-ए-ईमाँ हूँ और मुंकिर तू मिरे वजूद में इक बे-ज़बाँ समुंदर है उतर के देख सफ़ीने से मेरी ख़ातिर तू मैं शाख़-ए-सब्ज़ नहीं महरम-ए-सबा भी नहीं मिरे फ़रेब में क्यूँ आ गया है ताइर तू इसी उम्मीद पे जलते हैं रास्तों में चराग़ कभी तो लौट के आएगा ऐ मुसाफ़िर तू