हम तुम कि रोज़-ओ-शब मिले शाम-ओ-सहर मिले लेकिन न दिल न ज़ाविया-हा-ए-नज़र मिले छलनी हैं पाँव काँटों-भरी रहगुज़र मिले हम को हमारी शान के शायाँ सफ़र मिले मैं भी कुछ अपने कर्ब का इज़हार कर सकूँ मुझ को भी कुछ सलीक़ा-ए-अर्ज़-ए-हुनर मिले बे-माँगे पाएँ बूँद भी प्यासे तो जी उठें दरिया भी ले के ख़ुश न हों माँगे से गर मिले हम बिजलियों की ज़द में मुसलसल रहें तो क्यूँ ये क्या कि बिजलियों को हमारा ही घर मिले गुलशन शगुफ़्तगी से इबारत न हो सका ग़ुंचे खिले खिले से तो हर शाख़ पर मिले पैमाँ तो ये था मिल के न बिछड़ेंगे उम्र-भर बिछड़े तो इस तरह कि न फिर उम्र-भर मिले तासीर के बग़ैर दुआ का भी क्या मज़ा लुत्फ़-ए-दुआ ये है कि कि दुआ को असर मिले खुल कर तुम उन से भी न मिले जिन से क़ुर्ब था और हम कि जिस किसी से मिले टूट कर मिले डर है कहीं नतीजा रिहाई का ये न हो ज़िंदाँ के हम रहें न हमें अपना घर मिले किस दिल से आरज़ू-ए-ख़ुशी कीजिए कि अब हिस तक ख़ुशी की मिट गई ग़म इस क़दर मिले ये ज़िंदगी वो तपता हुआ रेगज़ार है जिस में कहीं न साया न शाख़-ए-शजर मिले वो हादसे जो वज्ह-ए-तबाही बने 'वक़ार' उन में से कुछ तो घर की ही दहलीज़ पर मिले