हमारा अज़्म ज़ियादा कि रहगुज़र कम है हर एक गाम पे लगता है ये सफ़र कम है उजाला और भी कुछ फैलने दो आँगन में अभी न शम्अ बुझाओ कि ये सहर कम है जो पढ़ सको तो बहुत है मिरी जबीं की शिकन सुबूत-ए-ग़म के लिए वर्ना चश्म-ए-तर कम है बराबरी के लिए चाहिए कमी-बेशी मकान ऊँचा बनाओ ज़मीं अगर कम है कई चराग़ मुनव्वर हैं बज़्म में लेकिन उन्हें पता ये नहीं रौशनी किधर कम है तुम्हारी ज़ुल्फ़ के साए में धूप बे-मा'नी मिरे लिए तो क़यामत की दोपहर कम है मिले न ज़ाइक़ा कुछ इतनी बे-नमक भी नहीं हमारी बात में लेकिन ज़रा शकर कम है