हमारा दिन कभी यूँ भी शफ़क़ अंजाम हो जाए परिंदे झील पर क़ब्ज़ा करें और शाम हो जाए किसी का ज़िक्र छेड़ूँ इस्तिआरों में किनायों में कोई समझे तो शायद दो घड़ी कोहराम हो जाए तअज्जुब है अगर हर नक़्श मौज़ू-ए-सुख़न ठहरे तअज्जुब है अगर बे-चेहरगी इल्ज़ाम हो जाए हमारे बा'द मुमकिन है सुख़न तकमील तक पहुँचे हमारे बा'द मुमकिन है मोहब्बत आम हो जाए रग-ए-जाँ खींचती है फिर कोई मीठी कसक 'तालिब' और ऐसे में अगर इक साँस भी नाकाम हो जाए