हमारा ज़िक्र और उन की ज़बाँ से कहाँ निस्बत ज़मीं को आसमाँ से कहूँ क्यूँकर नज़र से तू निहाँ है पता अपना मिला तेरे निशाँ से हुआ यूँ भी कि उस की सम्त अक्सर चले और लौट आए दरमियाँ से जलें जब फ़स्ल-ए-गुल में भी नशेमन तो फिर क्या कीजिए शिकवा ख़िज़ाँ से फ़रेब-ए-ज़िंदगी खाएँ कहाँ तक चुराएँ आँख मर्ग-ए-ना-गहाँ से हवादिस पेश आते हैं ज़मीं को सितारे टूटते हैं आसमाँ से बशर के मसअले हल करने शायद फ़रिश्ते आएँगे अब आसमाँ से जनाब-ए-ख़िज़्र से पूछें किसी दिन मिला क्या उन की उम्र-ए-जावेदाँ से दबी है आग जो सीने में 'अतहर' नहीं कुछ कम किसी आतिश-फ़िशाँ से