हमारे आगे रक़ीब-ए-सियाह-रू क्या है हुए जो दोस्त तुम अपने तो फिर अदू क्या है न जाने कितने ही ऐसे हैं एक तू क्या है बड़े-बड़ों की जहाँ में अब आबरू क्या है रगों में सिर्फ़ तमव्वुज की आरज़ू क्या है जो इंक़लाब न लाए तो फिर लहू क्या है बहार आते ही वहशत अगर ले अंगड़ाई तो फिर ये ज़ख़्म के टाँके हैं क्या रफ़ू क्या है मिलें तो पूछें ये अर्बाब-ए-हुस्न जौहर से ग़रज़ नहीं है तो दुनिया-ए-रंग-ओ-बू क्या है हक़ीक़तों पे अभी हैं मजाज़ के पर्दे जो ये हटें तो समझ में फिर आए तो क्या है निगाह-ए-रहमत-ए-हक़ में ये आ गए वर्ना हमारे अश्क-ए-नदामत की आबरू क्या है जो हाथ धो चुका ख़ुद ज़िंदगी से ऐ 'शो'ला' नमाज़-ए-इश्क़ है क्या उस की फिर वुज़ू क्या है