हमारे दरमियाँ क़ुर्बत कहाँ थी वो मिल जाता मिरी क़िस्मत कहाँ थी उसे चाहा उसी के ख़्वाब देखे सिवा उस के मुझे फ़ुर्सत कहाँ थी मिरे दिल में उठे तूफ़ान लाखों मगर लहजे में वो शिद्दत कहाँ थी बहुत मसरूफ़ रहता था वो आख़िर उसे मेरे लिए फ़ुर्सत कहाँ थी मुझे कहना था हाल-ए-दिल भी उस से मगर कहने की भी मोहलत कहाँ थी उसे खोने का ख़दशा भी था लेकिन उसे पाने की भी चाहत कहाँ थी उसे कहती मगर कैसे मैं कहती उसे कहने की भी हिम्मत कहाँ थी वो मुझ से दूर था बरसों से लेकिन नज़र से दूर वो सूरत कहाँ थी मुझे बस उस का लहजा चूमना था सिवा उस के कोई हाजत कहाँ थी