हमारे हाल-ए-ज़बूँ पर तू मुस्कुराया भी था ज़रूर अपनी सफ़ों में कोई पराया भी था मोहब्बतों में नए तजरबे ज़रूरी हैं क्या हमें तो पिछले बरस तुम ने आज़माया भी था मिरी सहर सितम-ए-शब से बे-ख़बर तो न थी फ़लक की आँख में इक अश्क डबडबाया भी था तुझे पहन के रुतें अब के सुर्ख़-रू भी हुईं तिरी हँसी ने बहारों को गुदगुदाया भी था जला हूँ दोहरी तरह दोपहर के सूरज में कि मेरे पाँव के नीचे तो मेरा साया भी था बिठाए रक्खा रक़ीबों को जिस इशारे से उसी में उठने का अपने लिए किनाया भी था सितम के दौर की 'एजाज़' ख़ूबियाँ तो न भूल कि आमिरों के दिलों में ग़म-ए-रेआ'या भी था