हमारी बात का उल्टा असर न पड़ जाए ये दिल का बोझ कहीं जान पर न पड़ जाए तमाम रात सुलगता हूँ और सोचता हूँ किसी चराग़ की मुझ पर नज़र न पड़ जाए इसी ख़याल से ज़ख़्मों की रू-नुमाई न की कि इम्तिहाँ में कहीं चारा-गर न पड़ जाए फिर इस के ब'अद कहाँ जाएँगे ये साया-पसंद इधर की धूप किसी दिन उधर न पड़ जाए लगी तो है ये बराबर मिरे तआक़ुब में गले हवा के कहीं ये सफ़र न पड़ जाए ये दश्त-ए-इश्क़ है ग़ाएर ज़रा ख़याल रहे तुम्हारा पाँव किसी दिन इधर न पड़ जाए