हमारी उम्रों से राइगानी को खा गई है फ़ज़ा मोहब्बत की बद-गुमानी को खा गई है बिछड़ने वाले पलट के आया तो किन दिनों में कि जब जुदाई मिरी जवानी को खा गई है ये रोज़-ओ-शब अपने ज़ीस्त से ख़ाली कट रहे हैं मआश की फ़िक्र ज़िंदगानी को खा गई है वो चाहता था कि उस के आगे मैं गिड़गिड़ाऊँ मिरी अना उस की ख़ुश-गुमानी को खा गई है ख़बर नहीं हो रही हमें कुछ भी इस धुएँ में बुझी हुई है या आग पानी को खा गई है हुआ नहीं आज फ़र्त-ए-ग़म में भी कार-ए-गिर्या ये ज़ब्त की ख़ू 'हसन' रवानी को खा गई है