हमा-वक़्त जो मिरे साथ हैं ये उभरते डूबते साए से किसी रौशनी के सराब हैं कि मिले हर अपने पराए से ख़म-ए-जादा से मैं पियादा-पा कभी देख लेता हूँ ख़्वाब-सा कहीं दूर जैसे धुआँ उठा किसी भूली-बिसरी सराए से उठी मौज-ए-दर्द तो यक-ब-यक मिरे आस-पास बिखर गए मह-ए-नीम-शब के इधर उधर जो लरज़ रहे थे किनाए से मिला मुझ को राह में इक नगर जहाँ कोई शख़्स न था मगर वो ज़मीं शगुफ़्ता शगुफ़्ता सी वो मकाँ नहाए नहाए से मिरे कार-ज़ार-ए-हयात में रहे उम्र-भर ये मुक़ाबले कभी साया दब गया धूप से कभी धूप दब गई साए से