कब निगह उस की इश्वा-बार नहीं कब निगाहें करिश्मा-ज़ार नहीं ग़ैर पर रहम ये किसे आया तुम तो माना सितम-शिआर नहीं याँ फ़ुग़ाँ से लहू टपकता है मैं नवा-संज-ए-शाख़-सार नहीं कुल्फ़त-ए-दिल से है जो आलूदा गौहर-ए-अश्क आबदार नहीं हम हैं ऐसे फ़राख़-रू दरवेश महफ़िल-ए-पादशह से आर नहीं न जला ख़ाना-ए-अदू तो न हँस शोला-ए-आह है शरार नहीं बाग़ बे-सर्फ़ा चल के क्या कीजे जिन से थी बाग़ की बहार नहीं बादा बेहूदा पी के क्या कीजे अब वो साक़ी नहीं वो यार नहीं ऐ मुनज्जम अबस ये नादानी तू कुछ अंदाज़ा-दान-ए-कार नहीं तू रविश-याब-ए-मेहर-ओ-माह ग़लत तू अदा-संज-ए-रोज़गार नहीं वाक़िफ़ असरार-ए-आसमानी से जुज़ हरीफ़ान-ए-बादा-ख़्वार नहीं चढ़ गए हैं किसी के फिर दम पर 'शेफ़्ता' आज बे-क़रार नहीं