हमें फ़ुर्सत उन्हें फ़ुर्सत नहीं है विसाल-ए-यार की सूरत नहीं है रहा बरसों से अपना घर समझ कर क़फ़स से क्यों कहूँ उल्फ़त नहीं है निगाहें फेर लो नज़रें तुम्हारी नज़र बदले मिरी आदत नहीं है हवस में ज़र की इतनी बे-हयाई नमक रोटी में क्या राहत नहीं है न बच्चों में रही इज़्ज़त बड़ों की बुज़ुर्गों में भी वो शफ़क़त नहीं है रहूँगा ख़ाक पे कि ख़ाक का हूँ फ़लक पर उड़ने की हाजत नहीं है अचानक राह में रुक कर वो बोले हमें मंज़िल की अब चाहत नहीं है ख़बर औरों से ही ‘मूनिस’ की ले लो तुम्हें मिलने की गर मोहलत नहीं है