हमें नसीब कोई दीदा-वर नहीं होता जो दस्तरस में हमारी हुनर नहीं होता मैं रोज़ उस से यहीं हम-कलाम होता हूँ दरून-ए-रूह किसी का गुज़र नहीं होता जला दिए हैं किसी ने पुराने ख़त वर्ना फ़ज़ा में ऐसा तो रक़्स-ए-शरर नहीं होता मोहब्बतों के कई इस्म मैं ने पढ़ डाले अजब तिलिस्म है वा इस का दर नहीं होता अगर मैं शब की सियाही न चीर कर निकलूँ कोई उजाला मिरा हम-सफ़र नहीं होता किसी के नक़्श-ए-क़दम की थी जुस्तुजू वर्ना मैं इस तरह तो 'सुख़न' दर-ब-दर नहीं होता